गीता सार पांचवा अध्याय “कर्मसंन्यासयोग”
गीता के पांचवे अध्याय का नाम कर्मसंन्यासयोग है।
इस अध्याय में कहा गया है, कर्म के साथ जो मन का संबंध है, उसके
संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है। यह भी कहा गया है
कि ऊँचे धरातल पर पहुँचकर सांख्य और योग में कोई भेद नहीं रह जाता है। किसी एक
मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं,
सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच
जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नहीं होता। भगवान
श्रीकृष्ण इस अध्याय में कर्मयोग और साधु पुरुष का वर्णन करते हैं| तथा
बताते हैं कि मैं सृष्टि के हर जीव में समान रूप से रहता हूँ अतः प्राणी को
समदर्शी होना चाहिए|
विद्याविनयसंपन्ने
ब्राह्मणे गवि हस्तिनि
शुनि
चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन:
ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण में
और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा
को देखने वाले होते हैं।
Janshruti & Team | nisha nik''ख्याति''
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