गीता सार प्रथम अध्याय "अर्जुनविषादयोग"
गीता के प्रथम अध्याय का नाम
अर्जुनविषादयोग है। गीता के इस अध्याय से श्रोता और वक्ता दोनों ही जीवन की
प्रगाढ़ समस्या के समाधान के लिये प्रवृत्त करता हैं। अर्जुन का व्यक्तित्व शौर्य,
धैर्य, साहस और बल इन
चारों गुणों से ना सिर्फ प्रभूत था, इन चार गुणों के ऊपर अर्जुन के पास दो गुण और
थे एक क्षमा, दूसरी प्रज्ञा।
ऱणभूमि में पहुंचकर सहसा अर्जुन के चित्त पर एक दूसरे ही प्रकार के मनोभाव का
आक्रमण हुआ, कार्पण्य का। एक
विचित्र प्रकार की करुणा उसके मन में भर गई और उसका क्षात्र स्वभाव लुप्त हो गया।
जिस कर्तव्य के लिए वह कटिबद्ध हुआ था, उससे वह विमुख हो गया। ऊपर से देखने पर तो
इस स्थिति के पक्ष में उसके तर्क धर्मयुक्त जान पड़ते हैं, किंतु उसने स्वयं
ही उसे कार्पण्य दोष कहा है और यह माना है कि मन की इस दुर्बलता के कारण उसका
जन्मसिद्ध स्वभाव नष्ट हो गया था। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि युद्ध करे अथवा
वैराग्य लेकर इस युद्ध से पीछे हट जाये। क्या करें, क्या न करें, कुछ समझ में नहीं आता था।
मनोभाव की इस चरम
स्थिति में पहुँचकर उसने अपना धनुषबाण एक ओर डालकर रथ के पीछे बैठ गया। जब कृष्ण ने अर्जुन
की इस स्थिति को देखकर जान लिया कि अर्जुन का शरीर ठीक है किंतु युद्ध आरंभ होने
से पहले ही उस अद्भुत क्षत्रिय का मनोंस्थिति टूट चुका है। बिना मन के यह शरीर
खड़ा नहीं रह सकता। कृष्ण अपने गुरू कर्तव्य को समझते हुए उसका वह्न करने लगे अत:
तर्क से, बुद्धि से, ज्ञान से, कर्म की चर्चा से, विश्व के स्वभाव
से, उसमें जीवन की
स्थिति से, दोनों के नियामक
अव्यय पुरुष के परिचय से और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से
अर्जुन के मन का उद्धार करना, यही उनका लक्ष्य हुआ। इसी तत्वचर्चा का विषय गीता है। पहले
अध्याय में सामान्य रीति से भूमिका रूप में अर्जुन ने भगवान से अपनी स्थिति कह देते
हैं। शंख बजाने के पश्चात अर्जुन सेना को देखने के लिए रथ को सेनाओं के मध्य ले
जाने के लिए कृष्ण से कहता है| इसके उप्रान्त कृष्ण अर्जुन को दोनों सेनाओं के मध्य ले
जाते हैं और दोनों सेनाओं के योद्धाओं का वर्णन करते है। तब मोहयुक्त हो
अर्जुन कायरता तथा शोक युक्त वचन कहता है।
इस अध्याय में अर्जुन की
मनोंदशा ऐसी है कि वो मोह और कर्तव्य में अंतर नहीं कर पाता और कायर की भाती युद्ध
करने से मना कर देता है।
गीता सार प्रथम अध्याय "अर्जुनविषादयोग"
गीता के प्रथम अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। गीता के इस अध्याय से श्रोता और वक्ता दोनों ही जीवन की प्रगाढ़ समस्या के समाधान के लिये प्रवृत्त करता हैं। अर्जुन का व्यक्तित्व शौर्य, धैर्य, साहस और बल इन चारों गुणों से ना सिर्फ प्रभूत था, इन चार गुणों के ऊपर अर्जुन के पास दो गुण और थे एक क्षमा, दूसरी प्रज्ञा। ऱणभूमि में पहुंचकर सहसा अर्जुन के चित्त पर एक दूसरे ही प्रकार के मनोभाव का आक्रमण हुआ, कार्पण्य का। एक विचित्र प्रकार की करुणा उसके मन में भर गई और उसका क्षात्र स्वभाव लुप्त हो गया। जिस कर्तव्य के लिए वह कटिबद्ध हुआ था, उससे वह विमुख हो गया। ऊपर से देखने पर तो इस स्थिति के पक्ष में उसके तर्क धर्मयुक्त जान पड़ते हैं, किंतु उसने स्वयं ही उसे कार्पण्य दोष कहा है और यह माना है कि मन की इस दुर्बलता के कारण उसका जन्मसिद्ध स्वभाव नष्ट हो गया था। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि युद्ध करे अथवा वैराग्य लेकर इस युद्ध से पीछे हट जाये। क्या करें, क्या न करें, कुछ समझ में नहीं आता था।
Janshruti & Team | nisha nik''ख्याति''
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