गीता सार दूसरा अध्याय "सांख्ययोग"
गीता के दूसरे अध्याय का नाम सांख्ययोग है। इसमें
जीवन की दो प्राचीन संमानित परंपराओं का तर्कों द्वारा वर्णन आया है। अर्जुन को उस
कृपण स्थिति में रोते देखकर कृष्ण ने उसका ध्यान दिलाया है कि इस प्रकार का
क्लैव्य और हृदय की क्षुद्र दुर्बलता अर्जुन जैसे वीर के लिए उचित नहीं। कृष्ण ने
अर्जुन की अब तक दी हुई सब युक्तियों को प्रज्ञावाद का झूठा रूप कहा। उनकी युक्ति
यह है कि प्रज्ञादर्शन काल, कर्म और स्वभाव से होनेवाले संसार की सब घटनाओं
और स्थितियों को अनिवार्य रूप से स्वीकार करता है। जीना और मरना, जन्म
लेना और बढ़ना, विषयों
का आना और जाना। सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं, इसी को
प्राचीन आचार्य पर्यायवाद का नाम भी देते थे। काल की चक्रगति इन सब स्थितियों को
लाती है और ले जाती है। जीवन के इस स्वभाव को जान लेने पर फिर शोक नहीं होता। यही
भगवान का व्यंग्य है कि प्रज्ञा के दृष्टिकोण को मानते हुए भी अर्जुन इस प्रकार के
मोह में क्यों पड़ गया है। ऊपर के दृष्टिकोण का एक आवश्यक अंग जीवन की
नित्यता और शरीर की अनित्यता था। नित्य जीव के लिए शोक करना उतना ही व्यर्थ है
जितना अनित्य शरीर को बचाने की चिंता। ये दोनों अपरिहार्य हैं। जन्म और मृत्यु
बारी बारी से होते ही हैं, ऐसा समझकर शोक करना उचित नहीं है।
फिर एक दूसरा दृष्टिकोण स्वधर्म का है। जन्म से
ही प्रकृति ने सबके लिए एक धर्म नियत कर दिया है। उसमें जीवन का मार्ग, इच्छाओं
की परिधि, कर्म
की शक्ति सभी कुछ आ जाता है। इससे निकल कर नहीं भागा जा सकता। कोई भागे भी तो
प्रकृत्ति उसे फिर खींच लाती है।
इस प्रकार काल का परिवर्तन या परिमाण, जीव की
नित्यता और अपना स्वधर्म या स्वभाव जिन युक्तियों से भगवान्, ने
अर्जुन को समझाया है उसे उन्होंने सांख्य की बुद्धि कहा है। इससे आगे अर्जुन के
प्रश्न न करने पर भी उन्होंने योगमार्ग की बुद्धि का भी वर्णन किया।
योगमार्ग, यह बुद्धि कर्म या प्रवृत्ति मार्ग के
आग्रह की बुद्धि है इसमें कर्म करते हुए कर्म के फल की आसक्ति से अपने को बचाना
आवश्यक है। कर्मयोगी के लिए सबसे बड़ा डर यही है कि वह फल की इच्छा में फँस जाता है; उससे उसे बचना
चाहिए।
अर्जुन को संदेह हुआ कि क्या इस प्रकार की
बुद्धि प्राप्त करना संभव है। व्यक्ति कर्म करे और फल न चाहे तो उसकी क्या स्थिति
होगी, यह एक
व्यावहारिक शंका थी। उसने पूछा कि इस प्रकार का दृढ़ प्रज्ञावाला व्यक्ति जीवन का
व्यवहार कैसे करता है? आना, जाना, खाना, पीना, कर्म करना, उनमें लिप्त होकर भी उससे अलग कैसे रहा जा सकता
है? कृष्ण
ने कितने ही प्रकार के बाह्य इंद्रियों की अपेक्षा मन के संयम की व्याख्या की है।
काम, क्रोध, भय, राग, द्वेष
के द्वारा मन का सौम्यभाव बिगड़ जाता है और इंद्रियाँ वश में नहीं रहतीं। इंद्रियों
पर जय प्राप्त करना ही सबसे बड़ी आत्मजय है। बाहर से कोई विषयों को छोड़ भी दे तो
भी भीतर का मन नहीं मानता। विषयों का स्वाद जब मन से जाता है, तभी मन
प्रफुल्लित, शांत
और सुखी होता है। समुद्र में नदियाँ आकर मिलती हैं पर वह अपनी मर्यादा नहीं
छोड़ता। ऐसे ही संसार में रहते हुए, उसके व्यवहारों को स्वीकारते हुए, अनेक
कामनाओं का प्रवेश मन में होता रहता है। किंतु उनसे जिसका मन अपनी मर्यादा नहीं
खोता उसे ही शांति मिलती हैं। इसे प्राचीन अध्यात्म परिभाषा में गीता में
ब्राह्मीस्थिति कहा है।
दूसरे अध्याय में कृष्ण अर्जुन को कहते है मन पर
विजय पान ही सबसे बङी विजय है।
Janshruti & Team | nisha nik''ख्याति''
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