गीत सार सांतवा अध्याय “संज्ञाज्ञानविज्ञान”
गीत के सांतवे अध्याय का नाम
संज्ञाज्ञानविज्ञान योग है। ये प्राचीन भारतीय दर्शन की दो परिभाषाएँ हैं। उनमें
भी विज्ञान शब्द वैदिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण था। सृष्टि के नानात्व का
ज्ञान विज्ञान है और नानात्व से एकत्व की ओर प्रगति ज्ञान है। ये दोनों दृष्टियाँ
मानव के लिए उचित हैं। इस प्रसंग में विज्ञान की दृष्टि से अपरा और परा प्रकृति के
इन दो रूपों की जो सुनिश्चित व्याख्या यहाँ गीता ने दी है, वह अवश्य
ध्यान देने योग्य है। अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं, पंचभूत,
मन, बुद्धि और अहंकार।
जिस अंड से मानव का जन्म
होता है। उसमें ये आठों रहते हैं। किंतु यह प्राकृत सर्ग है अर्थात् यह जड़ है।
इसमें ईश्वर की चेष्टा के संपर्क से जो चेतना आती है उसे परा प्रकृति कहते हैं;
वही जीव है। आठ तत्वों के साथ मिलकर जीवन नवाँ तत्व हो जाता है। इस
अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है जिनका और विस्तार विभूतियोग
नामक दसवें अध्याय में आता है। यहीं विशेष भगवती दृष्टि का भी उल्लेख है जिसका
सूत्र-वासुदेव: सर्वमिति, सब वसु या शरीरों में एक ही देवतत्व है,
उसी की संज्ञा विष्णु है। किंतु लोक में अपनी अपनी रु चि के अनुसार
अनेक नामों और रूपों में उसी एक देवतत्व की उपासना की जाती है। वे सब ठीक हैं।
किंतु अच्छा यही है कि बुद्धिमान मनुष्य उस ब्रह्मतत्व को पहचाने जो अध्यात्म
विद्या का सर्वोच्च शिखर है। कृष्ण कहते है पंचतत्व,
मन, बुद्धि भी मैं हूँ| मैं ही संसार
की उत्पत्ति करता हूँ और विनाश भी मैं ही करता हूँ| मेरे
भक्त चाहे जिस प्रकार भी मेरा नाम लें अंततः मुझे ही प्राप्त होते हैं| मैं
योगमाया से अप्रकट रहता हूँ और मुर्ख मुझे केवल साधारण मनुष्य ही समझते हैं|
Janshruti & Team | nisha nik''ख्याति''
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